Sunday, December 9, 2012

विद्येश्वर संहिता अध्याय ३,४


साध्य-साधन आदि का विचार तथा श्रवण ,कीर्तन और मनन –इन तीन साधनों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन




व्यास जी कहते हैं --- सूत जी यह वचन सुनकर वे सब महर्षि बोले –अब आप हमें वेदान्तसार-सर्वस्वरूप अद्भुत-शिव पुराण की कथा सुनाइए |

सूत जी ने कहा - आप सब महर्षिगण रोग-शोक से रहित कल्याणमय भगवान् शिव का स्मरण करके पुराणप्रवर शिवपुराण की,जो वेदके सार तत्त्व से प्रकट हुआ है ,कथा सुनिए | शिव पुराण में भक्ति,ज्ञान और वैराग्य –इन तीनों का प्रीती पूर्वक गान किया गया है और वेदान्तवेद्य सध्द्स्तु का विशेष रूप से वर्णन है | इस वर्तमान कल्प में जब सृष्टिकर्म आरम्भ हुआ था ,उन दिनों छः कुलों के महर्षि परस्पर वाद-विवाद करते हुए कहने लगे –अमुक वस्तु सबसे उत्कृष्ट है और अमुक नहीं है | उनके इस विवाद ने अत्यंत महान रूप धारण कर लिया | तब वे सब-के-सब अपनी शंका के समाधान के लिए सृष्टिकर्ता अविनाशी ब्रह्मा जी के पास गए और हाथ जोड़कर विनयभरी वाणी में बोले –प्रभो ! आप सम्पूर्ण जगत को धारण-पोषण करने वाले तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं | हम यह जानना चाहते हैं की सम्पूर्ण तत्वों से परे परात्पर पुराणपुरुष कौन है ??

ब्रह्माजी ने कहा – जहाँ से मन सहित वाणी उन्हें न पाकर लौट आती है तथा जिनसे ब्रह्मा,विष्णु ,रूद्र और इंद्र आदि से युक्त यह सम्पूर्ण जगत समस्त भूतों और इन्द्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है ,वे ही ये देव ,महादेव सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं | ये ही सबसे उत्कृष्ट हैं | भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है | दूसरे किसी उपाय से कहीं इनका दर्शन नहीं होता | रूद्र,हरि,हर तथा अन्य देवेश्वर सदा उत्तम भक्ति भाव से उनका दर्शन करना चाहते हैं | भगवान् शिव में भक्ति होने से मनुष्य संसार बंधन से मुक्त हो जाता है | देवता के कृपाप्रसाद से से उनमे भक्ति होती है और भक्ति से देवता का कृपाप्रसाद प्राप्त होता है ---ठीक उसी तरह जैसे अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है | इसलिए तुम सब ब्रह्मर्षि भगवान् शंकर का कृपा प्रसाद प्राप्त करने के लिए भूतल पर जाकर वहां सहस्त्रों वर्षों तक चालु रहने वाले एक विशाल यज्ञ का आयोजन करो | इन यज्ञपति भगवान् शिव की कृपा से वेदोक्त विद्या के सारभूत साध्य-साधन का ज्ञान होता है |
                      शिवपद की प्राप्ति ही साध्य है | उनकी सेवा है साधन है तथा उनके प्रसाद से जो जो नित्य-नैमित्तिक आदि फलों की और से नि:स्पृह होता है ,वही साधक है | वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करके उनके महान फल को भगवान शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही परमेस्वरपद की प्राप्ति है | वही सालोक्य आदि के क्रम से प्राप्त होने वाली मुक्ति है | उन-उन पुरुषों की भक्ति के अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है |उस भक्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं , जिनका साक्षात महेश्वर ने ही प्रतिपादन किया है | उनमें से सारभूत साधन को संक्षिप्त करके मैं बता रहा हूँ | कान से भगवान् के नाम-गुण और लीलाओं का श्रवण , वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका मनन –इन तीनों को महान साधन कहा गया है |

तात्पर्य यह है की महेश्वर श्रवण , कीर्तन और मनन करना चाहिए – यह श्रुति का वाक्य हम सबके लिए प्रमाणभूत है | इसी साधन से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि में लगे हुए आपलोग परम साध्य को प्राप्त हों | लोग प्रत्यक्ष वस्तु को आँख से देखकर उनमे प्रवित्त होते हैं | परन्तु जिस वस्तु का कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता उसे श्रवणनेंद्रिय द्वारा जान-सुनकर मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए चेष्टा करता है | अतः पहला साधन श्रवण ही है ,उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्त्व को सुन कर श्रेष्ठ बुद्धि वाला विद्वान पुरुष अन्य साधन-कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे | क्रमशः मनन पर्यंत इस साधन की अच्छी तरह साधना कर लेने पर उसके द्वारा सालोक्य आदि के क्रम से धीरे धीरे भगवान् शिव् का संयोग प्राप्त होता है | पहले सारे अंगों के रोग नष्ट हो जाते हैं | फिर सब प्रकार का लौकिक आनंद भी विलीन हो जाता है |
                          भगवान् शंकर की पूजा , उनके नामों के जप तथा उनके गुण ,रूप विलास और नामों का युक्ति परायण चित्त के द्वारा जो निरंतर प्रतिशोधन या चिंतन होता है , उसको मनन कहा गया है ; वह महेश्वर की कृपा दृष्टि से उपलब्ध होता है

                      सूत जी कहते हैं - मुनीश्वरों ! इस साधन का महात्म्य बताने के प्रसंग में मैं आपलोगों के लिए एक प्राचीन वृत्तान्त का वर्णन करूंगा,उसे ध्यान देकर आप सुनें | पहले की बात है , पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यास देव जी सरस्वती नदी के सुन्दर तट पर तपस्या कर रहे थे | एक दिन सूर्यतुल्य तेजस्वी विमान से यात्रा करते हुए भगवान् सनत्कुमार अकस्मात वहां जा पहुंचे | उन्होंने मेरे गुरु को वहां देखा | वे ध्यान में मग्न थे | उससे जगने पर उन्होंने ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार जी को अपने सामने उपस्थित देखा | देखकर वे बड़े वेग से उठे और उनके चरणों में प्रणाम करके मुनि ने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओं के बैठने योग्य आसन भी अर्पित किया तब प्रसन्न हुए भगवान् सनत्कुमार विनीतभाव से खड़े हुए व्यास जी से गंभीर वाणी में बोले ---
                     ‘मुने ! तुम सत्य वस्तु का चिंतन करो वह सत्य पदार्थ भगवान् शिव ही हैं ,जो तुम्हारे साक्षात्कार के विषय होंगे | भगवान् शंकर का श्रवण ,कीर्तन ,मनन --- ये तीन महत्तर साधन कहे गए हैं | ये तीनों ही वेदसम्मत हैं | पूर्वकाल में दूसरे दूसरे साधनों के संभ्रम में पड़कर घूमता-घामता चंद्राचल पर जा पहुंचा और वहां तपस्या करने लगा | तदनंतर महेश्वर शिव की आज्ञा से भगवान नंदिकेश्वर वहां आये | उनकी मुझपर बड़ी दया थी | वे सबके साक्षी तथा शिव गणों के स्वामी भगवान् नंदिकेश्वर मुझे स्नेहपूर्वक मुक्ति का उत्तम साधन बताते हुए बोले भगवान् शंकर का श्रवण कीर्तन और मनन ये तीनों साधन वेद सम्मत हैं और मुक्ति के साक्षात् कारण हैं ; यह बात स्वयं भगवान् शिव ने मुझसे कही है अतः ब्रह्मण ! तुम श्रवण आदि तीनों साधनों का अनुष्ठान करो !’ व्यास जी से बारम्बार ऐसा कह कर अनुगामियों सहित ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार परम सुन्दर ब्रम्ह्धाम को चले गए | इस प्रकार पूर्वकाल के इस उत्तम वृत्तान्त का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है |
                     ऋषि बोले-  सूत जी ! श्रवण आदि तीन साधनों को आपने मुक्ति का उपाय बताया है | किन्तु जो श्रवण आदि तीनों साधनों में असमर्थ हो , वह मनुष्य किस उपाय का अवलंबन करके मुक्त हो सकता है | किस साधनभूत कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है ???
(शेष अगली पोस्ट में )
(अध्याय ३-४ )